असदुद्दीन ओवैसी, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ व अखिलेश यादव।
– फोटो : amar ujala
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ये कितना सफल होंगे, यह विधानसभा चुनाव के नतीजों से पता चलेगा पर बुधवार को ओवैसी और अतीत में भाजपा की साथी रही सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा) के नेता ओमप्रकाश राजभर की मुलाकात 2022 के समीकरणों से भविष्य की सियासत एवं प्रदेश में अपने-अपने पैर जमाने की संभावनाएं तलाशने की तरफ ही इशारा करती है।
वैसे ओवैसी पहली बार यूपी के चुनाव में दिलचस्पी नहीं दिखा रहे हैं। वे बीते कई चुनावों से यूपी में अपनी संभावनाएं तलाशते रहे हैं। विधानसभा का 2017 का चुनाव हो या 2019 का लोकसभा चुनाव। लेकिन अकेले दम पर एआईएमआईएम कोई चमत्कार नहीं कर पाई।
दरअसल, पिछले दिनों बिहार में पांच उम्मीदवारों की जीत ने ओवैसी के दिल में उत्तर भारत की राजनीति में अपनी प्रासंगिकता बनाने की इच्छा को फिर जगा दिया है। उन्हें लग रहा है कि बिहार की तरह यदि यूपी में कुछ दलों का गठबंधन बनाकर चुनाव लड़ लिया जाए तो शायद यहां भी विधानसभा में एआईएमआईएम की राजनीतिक उपस्थिति हो जाए।
बिहार की सफलता ने ओवैसी के दिल और दिमाग में यूपी को लेकर सियासी उम्मीद की रोशनी जला दी है। ओवैसी को लग रहा है कि राजभर, बसपा या अन्य कुछ जातीय प्रभाव रखने वाले दलों से गठबंधन हो जाए तो यहां भी जातीय समीकरणों से मुस्लिम वोटों का गणित ठीक कर बिहार की तरह कुछ सीटें झोली में डाली जा सकती हैं।
– डॉ. मिश्र की बात दुरुस्त लगती है। ओवैसी की यूपी में दिलचस्पी की एक बड़ी वजह अच्छी संख्या में लगभग 18 फीसदी मुस्लिम आबादी होना है। कुछ जिलों की आबादी में मुस्लिमों की भागीदारी 50 प्रतिशत तक है। ऐसे में ओवैसी को लगता है कि कुछ सीटों पर मुस्लिम वोटों के साथ राजभर, बसपा या सपा से अलग हुए शिवपाल सिंह यादव की प्रसपा सहित अन्य कुछ छोटे दलों के साथ मोर्चा बनाकर उनके वोट हासिल कर लिए जाएं तो प्रदेश में राजनीतिक मौजूदगी दर्ज कराने में सफलता मिल सकती है।
– हालांकि बुधवार को ओवैसी की शिवपाल से मुलाकात नहीं हुई, लेकिन पिछले दिनों शिवपाल खुद कह चुके हैं कि 2022 के चुनाव को लेकर ओवैसी से बातचीत चल रही है। हालांकि यह सवाल अपनी जगह है कि ओवैसी के साथ मोर्चा बनाने वाले राजभर व शिवपाल को मुस्लिम वोटों का कितना लाभ मिलेगा, लेकिन मोर्चा बन जाता है तो ओवैसी को जरूर कुछ लाभ मिल सकता है। जहां तक भाजपा का सवाल है तो ओवैसी के सक्रिय होने से उसकी सेहत पर बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ने वाला क्योंकि ओवैसी मुख्य रूप से मुस्लिम वोट ही काटेंगे, जिसका सबसे ज्यादा नुकसान सपा और कुछ हद तक कांग्रेस को होगा।
– भाजपा को बस थोड़ा-बहुत राजभर वोटों का नुकसान हो सकता है, लेकिन ओवैसी की मौजूदगी से विपक्ष के वोटों में बिखराव से उसकी भरपाई हो जाएगी। जाहिर है कि ओवैसी की इस समय सक्रियता सिर्फ अपनी जमीन तलाशने की कोशिश भर है।
ये कितना सफल होंगे, यह विधानसभा चुनाव के नतीजों से पता चलेगा पर बुधवार को ओवैसी और अतीत में भाजपा की साथी रही सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा) के नेता ओमप्रकाश राजभर की मुलाकात 2022 के समीकरणों से भविष्य की सियासत एवं प्रदेश में अपने-अपने पैर जमाने की संभावनाएं तलाशने की तरफ ही इशारा करती है।
वैसे ओवैसी पहली बार यूपी के चुनाव में दिलचस्पी नहीं दिखा रहे हैं। वे बीते कई चुनावों से यूपी में अपनी संभावनाएं तलाशते रहे हैं। विधानसभा का 2017 का चुनाव हो या 2019 का लोकसभा चुनाव। लेकिन अकेले दम पर एआईएमआईएम कोई चमत्कार नहीं कर पाई।
विधानसभा के पिछले चुनाव में थी बसपा से गठबंधन की चर्चाएं थीं
दरअसल, पिछले दिनों बिहार में पांच उम्मीदवारों की जीत ने ओवैसी के दिल में उत्तर भारत की राजनीति में अपनी प्रासंगिकता बनाने की इच्छा को फिर जगा दिया है। उन्हें लग रहा है कि बिहार की तरह यदि यूपी में कुछ दलों का गठबंधन बनाकर चुनाव लड़ लिया जाए तो शायद यहां भी विधानसभा में एआईएमआईएम की राजनीतिक उपस्थिति हो जाए।
यूपी इसलिए अहम है ओवैसी के लिए
बिहार की सफलता ने ओवैसी के दिल और दिमाग में यूपी को लेकर सियासी उम्मीद की रोशनी जला दी है। ओवैसी को लग रहा है कि राजभर, बसपा या अन्य कुछ जातीय प्रभाव रखने वाले दलों से गठबंधन हो जाए तो यहां भी जातीय समीकरणों से मुस्लिम वोटों का गणित ठीक कर बिहार की तरह कुछ सीटें झोली में डाली जा सकती हैं।
इन समीकरणों पर ओवैसी की नजर
– हालांकि बुधवार को ओवैसी की शिवपाल से मुलाकात नहीं हुई, लेकिन पिछले दिनों शिवपाल खुद कह चुके हैं कि 2022 के चुनाव को लेकर ओवैसी से बातचीत चल रही है। हालांकि यह सवाल अपनी जगह है कि ओवैसी के साथ मोर्चा बनाने वाले राजभर व शिवपाल को मुस्लिम वोटों का कितना लाभ मिलेगा, लेकिन मोर्चा बन जाता है तो ओवैसी को जरूर कुछ लाभ मिल सकता है। जहां तक भाजपा का सवाल है तो ओवैसी के सक्रिय होने से उसकी सेहत पर बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ने वाला क्योंकि ओवैसी मुख्य रूप से मुस्लिम वोट ही काटेंगे, जिसका सबसे ज्यादा नुकसान सपा और कुछ हद तक कांग्रेस को होगा।
– भाजपा को बस थोड़ा-बहुत राजभर वोटों का नुकसान हो सकता है, लेकिन ओवैसी की मौजूदगी से विपक्ष के वोटों में बिखराव से उसकी भरपाई हो जाएगी। जाहिर है कि ओवैसी की इस समय सक्रियता सिर्फ अपनी जमीन तलाशने की कोशिश भर है।