दिल्ली के मुख्यमंत्री व आप नेता अरविंद केजरीवाल।
– फोटो : ANI
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घोषणा की जमीनी सच्चाई तो लगभग सवा साल बाद होने वाले विधानसभा चुनाव के नतीजों से पता चलेगी लेकिन आज के समीकरणों और राजनीतिक विश्लेषकों की राय में यूपी के सियासी मैदान में दिल्ली जैसा करिश्मा कर पाना केजरीवाल के लिए आसान नहीं है। हालांकि इससे कोई इन्कार नहीं करता कि इसके पीछे उनकी भविष्य की संभावनाएं टटोलने की कोशिश जरूर है जो फिलहाल विपक्ष के समीकरण ही बिगाड़ेगी।
यह सही है कि केजरीवाल सहित पार्टी के ज्यादातर नेता काफी पहले से यूपी की जमीन पर सियासी फसल उगाने का सपना देखते रहे हैं। इसकी एक वजह पार्टी के नेताओं का यूपी से जुड़ाव है। केजरीवाल खुद 2014 में वाराणसी में नरेंद्र मोदी के खिलाफ लोकसभा चुनाव लड़कर इस सपने को परवान चढ़ाने की नाकाम कोशिश कर चुके हैं।
कुछ अन्य चुनावों में भी एक-दो स्थानों पर आप के कार्यकर्ताओं ने चुनाव लड़े। धरना-प्रदर्शन और आंदोलन में भी आप की टोपियां और झाड़ू लोगों का ध्यान अपनी तरफ खींचती रही हैं लेकिन प्रदेश में राजनीतिक उपस्थिति दर्ज कराने का सपना साकार नहीं हो सका है।
प्रदेश में ज्यादातर स्थानों पर चतुष्कोणीय मुकाबले का समीकरण है। ऐसे में पांचवीं पार्टी के रूप में आप का आकर सवा साल में दिल्ली जैसा करिश्मा कर देना संभव नहीं लगता। सिवाय विपक्ष के वोटों में कटौती करने के। दिल्ली में आप के सामने मुख्य रूप से भाजपा व कांग्रेस ही थी। पर, यूपी में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी जैसे दल भी हैं, जिनका अपना-अपना 19 से 24 प्रतिशत तक वोट बैंक है।
ऊपर से दिल्ली के विधानसभा से ज्यादा सदस्य प्रदेश के कई नगर निगमों में चुने जाते हैं। फिर अभी हाल में हुए उपचुनाव के नतीजों ने यह साफ कर दिया है कि प्रदेश की योगी सरकार को लेकर जनता के बीच कोई सत्ताविरोधी रुझान नहीं है। इसलिए भी आप का यूपी में फिलहाल करिश्मा करना आसान नहीं दिखता।
– पंचायत चुनाव के जरिये आप ने गांव-गांव अपनी पहुंच बनाने की तैयारी की है। भाजपा इसे समझ रही है और इसीलिए उसने केजरीवाल पर पलटवार करने में देरी नहीं लगाई। सेवानिवृत्त प्रोफेसर एपी तिवारी अपने कुछ मेधावी छात्रों के अचानक आप के समर्थन में सोशल मीडिया पर सक्रियता बढ़ने का उल्लेख करते हुए कहते हैं, यह सही है कि जहां-तहां युवाओं के मन के किसी कोने में आप का आकर्षण दिख रहा है लेकिन भाजपा जैसे काडर वाले राजनीतिक दल के सामने करिश्माई प्रदर्शन कर पाना बहुत दूर की कौड़ी है। कारण, आप का आकर्षण अभी समूह का रूप नहीं ले पा रहा है। साथ ही आप के लिए प्रदेश में इतनी जल्दी मजबूत संगठन खड़ा कर पाना भी आसान नहीं लगता। इसलिए केजरीवाल की संभावनाएं फिलहाल भाजपा विरोधी वोटों में ही दिख रही हैं।
सेंट्रल फॉर स्टडी ऑफ सोसाइटी एंड पॉलिटिक्स, कानपुर के निदेशक डॉ. एके वर्मा का कहना है कि दिल्ली और उत्तर प्रदेश में चुनाव लड़ने में काफी अंतर है। वैसे अरविंद केजरीवाल राजनेता हैं। आप राजनीतिक दल है। चुनाव कहीं से भी लड़ सकते हैं। उस पर कोई रोक नहीं लगा सकते। पर वह भूल जाते हैं कि उत्तर प्रदेश की हैसियत विश्व के पांचवें देश जैसी है। यहां चुनाव लड़ना हंसी-खेल नहीं है। न तो उनका अभी यहां गांव-गांव संगठन है और न जमीन व जनाधार। यहां की विधानसभाओं का भौगोलिक क्षेत्रफल काफी विशाल है। जिसके हर गांव में इतनी जल्दी आप का अपनी पकड़ व पहुंच बना पाना आसान नहीं है।
घोषणा की जमीनी सच्चाई तो लगभग सवा साल बाद होने वाले विधानसभा चुनाव के नतीजों से पता चलेगी लेकिन आज के समीकरणों और राजनीतिक विश्लेषकों की राय में यूपी के सियासी मैदान में दिल्ली जैसा करिश्मा कर पाना केजरीवाल के लिए आसान नहीं है। हालांकि इससे कोई इन्कार नहीं करता कि इसके पीछे उनकी भविष्य की संभावनाएं टटोलने की कोशिश जरूर है जो फिलहाल विपक्ष के समीकरण ही बिगाड़ेगी।
यह सही है कि केजरीवाल सहित पार्टी के ज्यादातर नेता काफी पहले से यूपी की जमीन पर सियासी फसल उगाने का सपना देखते रहे हैं। इसकी एक वजह पार्टी के नेताओं का यूपी से जुड़ाव है। केजरीवाल खुद 2014 में वाराणसी में नरेंद्र मोदी के खिलाफ लोकसभा चुनाव लड़कर इस सपने को परवान चढ़ाने की नाकाम कोशिश कर चुके हैं।
कुछ अन्य चुनावों में भी एक-दो स्थानों पर आप के कार्यकर्ताओं ने चुनाव लड़े। धरना-प्रदर्शन और आंदोलन में भी आप की टोपियां और झाड़ू लोगों का ध्यान अपनी तरफ खींचती रही हैं लेकिन प्रदेश में राजनीतिक उपस्थिति दर्ज कराने का सपना साकार नहीं हो सका है।
पिछले 10 महीने से प्रदेश में सक्रिय हैं संजय सिंह
प्रदेश में ज्यादातर स्थानों पर चतुष्कोणीय मुकाबले का समीकरण है। ऐसे में पांचवीं पार्टी के रूप में आप का आकर सवा साल में दिल्ली जैसा करिश्मा कर देना संभव नहीं लगता। सिवाय विपक्ष के वोटों में कटौती करने के। दिल्ली में आप के सामने मुख्य रूप से भाजपा व कांग्रेस ही थी। पर, यूपी में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी जैसे दल भी हैं, जिनका अपना-अपना 19 से 24 प्रतिशत तक वोट बैंक है।
ऊपर से दिल्ली के विधानसभा से ज्यादा सदस्य प्रदेश के कई नगर निगमों में चुने जाते हैं। फिर अभी हाल में हुए उपचुनाव के नतीजों ने यह साफ कर दिया है कि प्रदेश की योगी सरकार को लेकर जनता के बीच कोई सत्ताविरोधी रुझान नहीं है। इसलिए भी आप का यूपी में फिलहाल करिश्मा करना आसान नहीं दिखता।
समर्थक बन रहे, पर सफलता दूर
– पंचायत चुनाव के जरिये आप ने गांव-गांव अपनी पहुंच बनाने की तैयारी की है। भाजपा इसे समझ रही है और इसीलिए उसने केजरीवाल पर पलटवार करने में देरी नहीं लगाई। सेवानिवृत्त प्रोफेसर एपी तिवारी अपने कुछ मेधावी छात्रों के अचानक आप के समर्थन में सोशल मीडिया पर सक्रियता बढ़ने का उल्लेख करते हुए कहते हैं, यह सही है कि जहां-तहां युवाओं के मन के किसी कोने में आप का आकर्षण दिख रहा है लेकिन भाजपा जैसे काडर वाले राजनीतिक दल के सामने करिश्माई प्रदर्शन कर पाना बहुत दूर की कौड़ी है। कारण, आप का आकर्षण अभी समूह का रूप नहीं ले पा रहा है। साथ ही आप के लिए प्रदेश में इतनी जल्दी मजबूत संगठन खड़ा कर पाना भी आसान नहीं लगता। इसलिए केजरीवाल की संभावनाएं फिलहाल भाजपा विरोधी वोटों में ही दिख रही हैं।
यूपी से चुनाव लड़ना हंसी-मजाक नहीं
सेंट्रल फॉर स्टडी ऑफ सोसाइटी एंड पॉलिटिक्स, कानपुर के निदेशक डॉ. एके वर्मा का कहना है कि दिल्ली और उत्तर प्रदेश में चुनाव लड़ने में काफी अंतर है। वैसे अरविंद केजरीवाल राजनेता हैं। आप राजनीतिक दल है। चुनाव कहीं से भी लड़ सकते हैं। उस पर कोई रोक नहीं लगा सकते। पर वह भूल जाते हैं कि उत्तर प्रदेश की हैसियत विश्व के पांचवें देश जैसी है। यहां चुनाव लड़ना हंसी-खेल नहीं है। न तो उनका अभी यहां गांव-गांव संगठन है और न जमीन व जनाधार। यहां की विधानसभाओं का भौगोलिक क्षेत्रफल काफी विशाल है। जिसके हर गांव में इतनी जल्दी आप का अपनी पकड़ व पहुंच बना पाना आसान नहीं है।